शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

पत्नी के देहांत पर आयोजित शोकसभा में उद्गार

"हमारे गुरु मास्टर हरपाल जी को प्रणाम. जीवन-संगिनी की मौत से ज्यादा इस उम्र में कोई चोट नहीं हो सकती. मैं ज्वार-भाटा के बीच फंसा हुआ अपने मन के भावों और घावों को चाह कर भी आज इस घडी में रोक नहीं पा रहा हूँ. आपके स्नेह और आशीर्वाद ने जो जोत जगाई है, उसके लिए मेरे उद्गार अच्छे लगें तो मेरा दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल जायेगा.
आध-अधूरा पढ़-लिख, गाँव की इस माटी का सौरभ पाया,
अरमानों भी खूब हुआ,
वैर-विरोध कर, जीवन की जोत जलाई है,
पैदा हुए नपैद, ऐसा पुरखों से सुनता आया हूँ.
जीवन में लगा धर्मदेवी का संग, गृहस्थी आबाद हुई,
दो बच्चों का पाया संग, बचपन में मां को खोया
पिता का साया साथ हुआ,
पैदा हुए नपैद, ऐसा पुरखों से सुनता आया हूँ.
विघ्न-बाधाओं की जंग में त्याग-तपस्या हुई भंग,
अपनों के बीच व्यथा का चेहरा सजाया है,
भरा नहीं घावों से, भावों का भी आभाव हुआ,
पैदा हुए नपैद, ऐसा पुरखों से सुनता आया हूँ.
खूब मिली प्रतिष्ठा जग में,
अंधी हुई उसके आगे संसारी माया,
बड़े-बड़े लोगों का स्नेह पाया, संभल न उसको मैं पाया
पैदा हुए नपैद, ऐसा पुरखों से सुनता आया हूँ.
अपनों के मन में खूब उतरा, परायों में अपनापन पाया,
गति हुई इतनी कि मजबूती से चल न पाया,
हेराफेरी को अपना दुश्मन खूब बनाया,
पैदा हुए नपैद, ऐसा पुरखों से सुनता आया हूँ.
सुख-दुःख कि इस मतलबी दुनिया में,
जीवन तपता है, अस्थि जलती है,
अपनों के बीच परायों को मीत पाया
पैदा हुए नपैद, ऐसा पुरखों से सुनता आया हूँ.
मेरे मन की अनकही व्यथा बहुतों ने नहीं समझी,
क्यूंकि संसार में परमार्थी कम, स्वार्थी ज्यादा,
खुदगर्जी में चलती है संसारी मर्जी,
उधो तेरा भी जीवन साकार नहीं हुआ; पैदा हुए नपैद, ऐसा पुरखों से सुनता आया हूँ।
(गंगा जीवन से लेखा मृत्यु तक साथ है, पेश है गंगा जी को)
गंगा तू इतनी पवन है, हिंद यही जयहिंद यही; देश-समाज का कुछ ख्याल करो, मिसाल नहीं तो मशाल बनो; के राजेंद्र 'बेबस', कुछ ऐसा कर जाओ जगत में, मरकर भी अमर कहाओ,
पैदा हुए नपैद, ऐसा पुरखों से सुनता आया हूँ.
मेरा वंदन, आपका अभिनन्दन, मानो-न-मानो आप मेरे सर का चन्दन. आपके प्रति धन्यवाद बहुत छोटा है। मैं आप सबका कर्जदार हूँ. जयहिंद.

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

सृष्टि के आरम्भ से ही मानव-विचारों का आदान-प्रदान अभिव्यक्ति से होता है. अभिव्यक्ति को प्रकट करने का सबसे प्रबल और असरकारी रूप कोई भी 'भाषा' नहीं बल्कि मात्र 'मातृभाषा' होती है. इतिहास हमें बारम्बार झकझोरता है कि हमारे देश ने गुलामी झेली, उसके जंजीरें एक लम्बे संघर्ष और हमारे पूर्वजों के अनगिनत त्याग और बालिदानों के बाद कटी, लेकिन गंभीरता से सोचने का क्या अब तक उचित समय नहीं आया है कि हम आजादी के छः दशक बीत जाने पर आज भी 'अंग्रेजी' गुलामी का जो कलंक 'ढ़ो' रहे हैं, क्या उसे 'ढ़ोने' की बजाय 'धोने' की जरूरत नहीं है? मातृभाषा से अभिव्यक्ति की सम्पूर्णता प्राप्त होती है और सामाजिक व आर्थिक परिवेश के साथ-साथ संस्कार और संस्कृति पर भी उसका दूरगामी प्रभाव पड़ता है. उथल-पुथल मचने वाला तथ्य यह भी है कि वर्तमान में सबसे ज्यादा गिरावट मातृभाषा की हुई है, तभी उसके परिणामस्वरूप हमारे संस्कार गिरे हैं, नैतिकता ह्रास हुई और संस्कृति को चोट पहुंची है. मातृभाषा और अपने देश की माटी से उत्पन्न भाषाओँ के मर्म को समझे बिना 'जनता की वाणी' नहीं समझी जा सकती. वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखें तो ज्ञात होता है कि मन-मस्तिष्क में विचार की झलक सर्वप्रथम मातृभाषा से ही होती है. सुख-दुःख में आह भी अपनी ही भाषा में निकलती है. इन सब तथ्यों के बावजूद अंग्रेजी का वजूद कम होने की बजाय बढ़ा है. खलबली मचने के लिए ये काफी है कि हमारी पढ़ाई, न्याय, शासन और अर्थार्जन की भाषा 'अंग्रेजी' बना दे गयी तो देशभक्ति कमजोर हुई, हमारे शिक्षा प्राप्त करनेवाले नौनिहालों पर अपने भाषा की बजाय अंग्रेजी का प्रभाव बढ़ा. वातावरण का पश्चिमीकरण हुआ, भ्रष्टाचार बढ़ा, ईमानदारी तिरस्कृत हुई, नैतिकता की जड़े खोखली के गयी, लोकतंत्र पर 'अंग्रेजी मानसिकता' छाई और तो और अंग्रेजी भारी पड़ने से हमारे देश की भाषाएँ परायी हुई, ऐसे में हमारे पास क्या बच रहा है, यह बताना मुश्किल है. आज के वातावरण सच्चाई से रूबरू होते ये शब्द ललकारते हैं :
हिंदी या हमारी मातृभाषा दौड़ी वहां जहाँ जन-जन था,
फिर क्यों अंग्रेजी कर रही उसकी सिंह सवारी.
यहीं तो अपनों की आयाती अंग्रेजी का गम था,
तभी तो किस्ती वहां डूबी जहाँ पानी कम था.

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भागने की आदत त्यागें!

भारत में एक नै विचारधारा जन्म ले रही है. वह है, आलोचना. बहुत से लोग अनेक मामलों पर आलोचना करते तो दिखेंगे, लेकिन उस आलोचना में अपनी जिम्मेदारी नहीं तलाशेंगे. हमारे समाज में बिन मांगे सलाह देने वाले लोगों की कोई कमी नहीं है. सलाह देना अच्छा बात है, लेकिन सलाह का स्तर कैसा हो, यह एक मुश्किल और जोखिमभरा काम है वैचारिक और जिम्मेदारी के स्तर पर. अनेक मौकों पर, अनेक जगहों और जहाँ दो-चार लोग इकट्ठे हुए कि नहीं बहस और मुहबासे आरम्भ हो जाते हैं. समाज में ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन जहाँ सुझावों और विचारों का दौर चलता है, वहां बहुत से लोग सिर्फ और सिर्फ प्रश्न खरे कटे दिखाई देते हैं, हल और उनके इलाज़ की जिम्मेदारी की जब बात आती है, तो पतली गली से वैचारिक और बौधिक स्तर पर एकदम पल्ला छाड़ लेना एक आम आदत की तरह नज़र आता है.
बात एकदम साधारण है, लेकिन है बड़ी गंभीर. हमारे यहाँ समाज नाम की इकाई वैसे भी दम तोड़ रही है, ऐसे में परिवार और सामूहिक बुनियाद का आचरण अपनी सांसे गिनता नज़र आता है. सब चाहते हैं कि हमारी व्यवस्था और सामाजिक जीवन में मूल्यों का टोटा दिनोंदिन बढता ही जा रहा है. यह व्यवस्था तभी मज़बूत होती है, जब त्याग, अनुशासन और सहनशीलता का वातावरण निर्मित हो. मोटे तौर पर बेझिझक स्वीकारना पड़ेगा कि त्याग और सब्र किसे कहते है, यह हमारे जीवन से तेज़ी से मिटता जा रहा है. इन गुणों के अभाव में क्या हम सोच सकते है कि क्या हम स्वस्थ और सभ्य समाज की ओर अपने कदम बढ़ा रहे हैं या केवल आलोचना के हथियार वाली तलवार को जहाँ कहीं भी निकाला, उठाया, उसका इस्तेमाल किया और फिर अपने म्यान में किसी अगले मौके के लिए वापस रख लिया.
निश्चित रूप से इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि ऐसा करके हम क्या व्यवस्था को सुधार लेंगे या केवल आलोचना करके अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर देंगे? ऐसा लगते है, हमें जीवन के विभिन चरणों में, पलायन की सहज प्रवृति अपनाने की आदत-सी पड़ गयी है. दूसरों पर जिम्मेदारी का ठीकरा फोड़ देने से क्या हमारी जिम्मेदारी दूर हो जाएगी, बेबुनियादी बहस केवल गाल बजने तक सीमित हो जाएगी, ये ऐसे यक्ष प्रश्न हैं, जो देश के बौधिक और देशभक्ति का जज्बा रखनेवाले लोगों को जरूर कचोटे हैं.
इन सब बातों पर गौर करने से ऐसा लगता है कि बौधिक लोग तो केवल विचार देकर अपनी जिम्मेदारी पूरा करना समझतें हैं. गंभीरता से सोचने वाले लोग, मन मसोसकर रह जाते हैं--क्या यही सतही और तथाकथित देशभक्ति हमारी कमजोर जड़ों को और कमजोर नहीं बना रही. देश में मोटामोटी आधे लोग तो ऐसे हैं, जिनको दो जून कि रोटी मिल जाये, वही उनके लिए जीवन संघर्ष का फल है. शेष करीब चालीस प्रतिशत लोग अपनी या अपने परिवार की सही तरह से प्रगति हो जाये, इसी सोच को पूरा करने में जुटे रहते हैं. मोटे तौर पर आज की व्यवस्था के आधार पर देखें तो देशभक्ति की उम्मीद का जिम्मा राजनीतिज्ञ, सरकारी नौकरशाह व कर्मचारियों की लम्बी-चौड़ी फौज और समाज-सेवकों पर आता है.
हमारे लिए मुश्किल और बुनियादी बात यह है कि क्या देशभक्ति की जिम्मेदारी केवल उन्हीं जमातों पर है, जो कई मामलों में दिग्भ्रमित और गैर-जवाबदेह हैं? ऐसा लगता है कि हम आज़ाद हुए अपने पूर्वजों के बलिदानों से, क्या हमने उसके बाद आज़ादी के मायनों को समझा, क्या हमने देशभक्ति के जरूरी संसाधनों को पोषित किया, क्या हमने उन जमातों की कार्यप्रणाली की खंगालकर, उनकी कमियों को दूर किया, जो देश को चलाने में प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से जुडी हुई हैं या यूँ कहें जिनको संविधान ने देश ढ ब्यवस्था चलने के प्रति जिम्मेदार बनाया है. आज संविधान के तीन स्तम्भ--विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपनी बहुत-से जिम्मेदारियों से पीछे हट रही है और कोई ऐसी बुनियादी पहल भी नहीं हो रही है, जिससे ऐसा लगे कि उसमे लगे घुन को साफ़ या जड़ से ख़त्म करने की कोशेशें हो रही है. एक अघोषित परन्तु हमारे समाज में पहचान बनानेवाला चौथा स्तम्भ कभी-कभी कुछ मायनों में थोडा सक्रिय दिखाई पड़ता है, वह है पत्रकारिता. लेकिन इस व्यवसाय में भी बहुत से विकार उतनी ही तेज़ी से आयें है जितने तीनों स्तंभों में. पता नहीं चलता कि कौन पत्रकार और अख़बार समूह किस प्रछन्न प्रयोजन और भूमिका बल पर समाचार दे रहा है, किसकी पोल क्यों और कैसे खोल रहा है.
निश्चित रूप से हमने अपने विकारों का इलाज नहीं किया तो गुलामी की जिन जंजीरों को तोड़कर हमारे देशभक्तों ने जो सपने संजोये थे, उनको तोड़ने कि जिम्मेदारी से हम बच नहीं पाएंगे. हमारी जिम्मेदारी है कि हम देश और समाज को रसातल में जाने से रोंक सकें, तो रोक लें.

देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी से न भागें!

भारत में एक नै विचारधारा जन्म ले रही है. वह है, आलोचना. बहुत से लोग अनेक मामलों पर आलोचना करते तो दिखेंगे, लेकिन उस आलोचना में अपनी जिम्मेदारी नहीं तलाशेंगे. हमारे समाज में बिन मांगे सलाह देने वाले लोगों की कोई कमी नहीं है. सलाह देना अच्छा बात है, लेकिन सलाह का स्तर कैसा हो, यह एक मुश्किल और जोखिमभरा काम है वैचारिक और जिम्मेदारी के स्तर पर. अनेक मौकों पर, अनेक जगहों और जहाँ दो-चार लोग इकट्ठे हुए कि नहीं बहस और मुहबासे आरम्भ हो जाते हैं. समाज में ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन जहाँ सुझावों और विचारों का दौर चलता है, वहां बहुत से लोग सिर्फ और सिर्फ प्रश्न खरे कटे दिखाई देते हैं, हल और उनके इलाज़ की जिम्मेदारी की जब बात आती है, तो पतली गली से वैचारिक और बौधिक स्तर पर एकदम पल्ला छाड़ लेना एक आम आदत की तरह नज़र आता है.
बात एकदम साधारण है, लेकिन है बड़ी गंभीर. हमारे यहाँ समाज नाम की इकाई वैसे भी दम तोड़ रही है, ऐसे में परिवार और सामूहिक बुनियाद का आचरण अपनी सांसे गिनता नज़र आता है. सब चाहते हैं कि हमारी व्यवस्था और सामाजिक जीवन में मूल्यों का टोटा दिनोंदिन बढता ही जा रहा है. यह व्यवस्था तभी मज़बूत होती है, जब त्याग, अनुशासन और सहनशीलता का वातावरण निर्मित हो. मोटे तौर पर बेझिझक स्वीकारना पड़ेगा कि त्याग और सब्र किसे कहते है, यह हमारे जीवन से तेज़ी से मिटता जा रहा है. इन गुणों के अभाव में क्या हम सोच सकते है कि क्या हम स्वस्थ और सभ्य समाज की ओर अपने कदम बढ़ा रहे हैं या केवल आलोचना के हथियार वाली तलवार को जहाँ कहीं भी निकाला, उठाया, उसका इस्तेमाल किया और फिर अपने म्यान में किसी अगले मौके के लिए वापस रख लिया.
निश्चित रूप से इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि ऐसा करके हम क्या व्यवस्था को सुधार लेंगे या केवल आलोचना करके अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर देंगे? ऐसा लगते है, हमें जीवन के विभिन चरणों में, पलायन की सहज प्रवृति अपनाने की आदत-सी पड़ गयी है. दूसरों पर जिम्मेदारी का ठीकरा फोड़ देने से क्या हमारी जिम्मेदारी दूर हो जाएगी, बेबुनियादी बहस केवल गाल बजने तक सीमित हो जाएगी, ये ऐसे यक्ष प्रश्न हैं, जो देश के बौधिक और देशभक्ति का जज्बा रखनेवाले लोगों को जरूर कचोटे हैं.
इन सब बातों पर गौर करने से ऐसा लगता है कि बौधिक लोग तो केवल विचार देकर अपनी जिम्मेदारी पूरा करना समझतें हैं. गंभीरता से सोचने वाले लोग, मन मसोसकर रह जाते हैं--क्या यही सतही और तथाकथित देशभक्ति हमारी कमजोर जड़ों को और कमजोर नहीं बना रही. देश में मोटामोटी आधे लोग तो ऐसे हैं, जिनको दो जून कि रोटी मिल जाये, वही उनके लिए जीवन संघर्ष का फल है. शेष करीब चालीस प्रतिशत लोग अपनी या अपने परिवार की सही तरह से प्रगति हो जाये, इसी सोच को पूरा करने में जुटे रहते हैं. मोटे तौर पर आज की व्यवस्था के आधार पर देखें तो देशभक्ति की उम्मीद का जिम्मा राजनीतिज्ञ, सरकारी नौकरशाह व कर्मचारियों की लम्बी-चौड़ी फौज और समाज-सेवकों पर आता है.
हमारे लिए मुश्किल और बुनियादी बात यह है कि क्या देशभक्ति की जिम्मेदारी केवल उन्हीं जमातों पर है, जो कई मामलों में दिग्भ्रमित और गैर-जवाबदेह हैं? ऐसा लगता है कि हम आज़ाद हुए अपने पूर्वजों के बलिदानों से, क्या हमने उसके बाद आज़ादी के मायनों को समझा, क्या हमने देशभक्ति के जरूरी संसाधनों को पोषित किया, क्या हमने उन जमातों की कार्यप्रणाली की खंगालकर, उनकी कमियों को दूर किया, जो देश को चलाने में प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से जुडी हुई हैं या यूँ कहें जिनको संविधान ने देश ढ ब्यवस्था चलने के प्रति जिम्मेदार बनाया है. आज संविधान के तीन स्तम्भ--विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपनी बहुत-से जिम्मेदारियों से पीछे हट रही है और कोई ऐसी बुनियादी पहल भी नहीं हो रही है, जिससे ऐसा लगे कि उसमे लगे घुन को साफ़ या जड़ से ख़त्म करने की कोशेशें हो रही है. एक अघोषित परन्तु हमारे समाज में पहचान बनानेवाला चौथा स्तम्भ कभी-कभी कुछ मायनों में थोडा सक्रिय दिखाई पड़ता है, वह है पत्रकारिता. लेकिन इस व्यवसाय में भी बहुत से विकार उतनी ही तेज़ी से आयें है जितने तीनों स्तंभों में. पता नहीं चलता कि कौन पत्रकार और अख़बार समूह किस प्रछन्न प्रयोजन और भूमिका बल पर समाचार दे रहा है, किसकी पोल क्यों और कैसे खोल रहा है.
निश्चित रूप से हमने अपने विकारों का इलाज नहीं किया तो गुलामी की जिन जंजीरों को तोड़कर हमारे देशभक्तों ने जो सपने संजोये थे, उनको तोड़ने कि जिम्मेदारी से हम बच नहीं पाएंगे. हमारी जिम्मेदारी है कि हम देश और समाज को रसातल में जाने से रोंक सकें, तो रोक लें.

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

क्या कहिये ?

क्या कहिये ?

व्यक्ति अपने को भगवान माने
तो फिर बताएं भगवान को क्या कहिये
जब लोगों के साथ है चलना
तो क्यों न रेत को भी पत्थर कहिये!

मर चुका है आत्मबल लोगों का
जो भी इच्छा हो, उन्हें कहिये!
दर्द की जब कोई दवा न हो
तो क्यों न फिर दर्द को ही दवा कहिये!

पेयजल को लोग हैं तरसते
फिर दरियादिली को क्या कहिये
संसार में लज्जा ताज जीने वालों को
फिर इंसानियत या हैवानियत की मूर्ति कहिये.

अब तो नकाबों पर भी नकाब चढ़े हैं
फिर असलियत क्या है, वह आप कहिये!
क्या है भलाई इसी में अपनी
सरासर झूठ को भी सच कहिये!

सोचना मगर फिर भी हमें है
सच को फिर क्या कहिये?
कुछ करने या कहने को
आज एक बहुत बड़ा जिगर चाहिए!

मंजिलें दूर अवश्य हैं अनजानी जिन्दगी की
मरना-जीना उसी का अंग कहिये!
अगर मर-मिट जाएँ स्वार्थ में
ऐसे में फिर परमार्थ को क्या कहिये!

ललकार है, पुकार है -
परिवार किए चक्कर में दंदफंद मत करिए
अपने को न भूलें इतना
की परिवार भी आपको बाद में भूल जाये
ऐसे में फिर परायों को क्या कहिये!

अपने पराये का भेद छोड़कर
धरती मान के लालों को अपना कहिये!
गंगा-यमुना को दूषित किया उन्होंने
जिनकी बाजुओं में 'दम' नहीं, बल्कि 'दंभ' था
अन्यथा गंदे नालों में क्या दम था.

उस समय हम क्या खाक करेंगे
जब हमारी सांसों में दम न रहेगा
सोच कर कहिये कि हम तब क्या करेंगे
जब यमराज बे-खटके-बे-टिकेट ले जायेंगे.

माना सीमा पर गोली खाना देशभक्ति है
पूछता हूँ आप जहाँ हैं, क्या वहां देशभक्ति नहीं है
अब तक दूसरों के लिए था कि क्या कहिये
जनाब, अब खुद से पूछिये-बताईए कि
ऐसे में आपकी भूमिका को क्या कहिये!

नहीं कहूँगा राम-कृष्ण, मौला, गुरुनानक, ईसामसीह बनिए
बनिए तो एक बार हनुमान जैसे बनिए
आग अपन की पूँछ में थोड़ी जरूर लगेगी
तभी हमारे 'जीवन की लंका' जरूर जलेगी
जनाब, यह होगा जब आपके इरादों में दम होगा
तब तो रावण वध करने श्रीराम दौड़े आएंगे!

बोलकर भी चुप हो जाएँ
सुनकर भी अनजान हो जाएँ
जानकार भी कुछ न कह पायें
तो फिर उसको क्या कहिये!
कुछ ऐसा करो जगत में मरकर भी अमर कहाओ!

हिंदी या हमारी मातृभाषा दौड़ी वहां जहाँ जन-जन था
फिर क्यों अंग्रेजी कर रही उसकी सिंह सवारी
यहीं तो अपनों की आयाती अंग्रेजी का गम था
तभी तो किस्ती वहां डूबी जहाँ पानी कम था.
जय हिंद.

वंदन है, अभिनन्दन है, आप मेरे सिर का चन्दन हैं.